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२४ मार्च, १९६५
'स' ने एक बुरा स्वप्न देखा है : वह एक ऐसे मकानपर जा पहुंची जिसपर निगरानी रखनी चाहिये थी, लेकिन किसीने निगरानी रखी नहीं; शत्रु अंदर घुस गये । 'स' उस घरमें
घुस गयी । उसने एक कमरा देखा जिसमें श्रीअर्रावंद थे । श्रीअर्रावंदके पांवमें घाव था; ३ कराह रहे थे । उन्हें उन विरोधियोंने घायल कर दिया था जिन्हें मकानमें प्रवेश करने दिया गया था । श्रीअर्रावदको घायल देखकर वह दौडी, आपको ढूंढनेके लिये दौडी ।
यह शायद ११ फरवरीकी घटनाका प्रतीक मात्र है ।'
पैरका मतलब है कोई भौतिक चीज ।
मेरा ख्याल है कि यह यही है कि जो हुआ है उसका यह प्रतीक मात्र है ।
यह कोई ऐसी चीज तो नहीं है जौ होनेवाली है?
पूर्वसूचक? नहीं ।
पैरसे मतलब है कुछ लोगोंके द्वारा, आश्रमके द्वारा या मेरे द्वारा होनेवाला उनका भौतिक कार्य ।
मुझे नहीं लगता कि यह गंभीर है । यह जो हो चुका है उसीका चित्र है और जो कहीं अंकित है ।
(मौन)
यह एक अजीब-सा परिणाम है । कुछ समयसे, लेकिन ज्यादा-सें-ज्यादा यथार्थ रूपमें, जब में कोई चीज सुनती हू या मुझे कोई चीज सुनायी जाती है या में संगीत सुनती हूं या कोई मुझे कोई घटना सुनाता है तो मैं उसे तुरंत अनुभव करती हू, उस क्रियाका आरंभ, वह जिस स्तरपर हों रही है या उसकी प्रेरणाका मूल स्रोत अपने-आप किसी-न-किसी केंद्रमें स्पदनोंके द्वारा मालूम हो जाता है. । और फिर, स्पंदनके गुणके अनुसार यह रचनात्मक या नकारात्मक चीज होती है और जब वह, निश्चित समय- पर, चाहे कितना भी कम क्यों न हो, किसी 'सत्य'के क्षेत्रको छूती है तो.. कैसे कहा जाय? आनंदके स्पंदनकी एक चिनगारी-सी प्रतीत होती है । विचार एकदम नीरव होता है, अचल, शून्य -- बस शून्य होता है (माता- जी संपूर्ण समर्पणकी मुद्रामें अपने हाथ ऊपरकी ओर । खोलती हैं) । परंतु
१११ फरवरीको कुछ लोगोंने आश्रमपर आक्रमण किया था । कुछ मकान लूटे और जलाये थे।
९ यह बोध अधिकाधिक यथार्थ होता जा रहा है । और इससे में जानती हू --में' जानती हू कि प्रेरणा कहांसे आती -छै-, क्रिया कहां स्थित है और वस्तुका स्तर क्या है ।
यह एक यथार्थता है! ओह! व्योरेमें अत्यंत सूक्ष्म । पहली बार मैंने इसे स्पष्ट रूपमें ''भागवत मुहूत''का संगीत सुनते हुए अनुभव किया था, वह पहली बार था और उस समय मुझे मालूम न था कि यह एक सुसंगठित वस्तु, एक प्रकारकी व्यवस्थित अनुभूति थी । लेकिन अब, इतने महीनोंके बाद, नियमित हो गया है और मेरे लिये बिलकुल निश्चित संकेत है, यह किसी सक्रिय विचार, किसी सक्रिय संकल्पके अनुरूप नहीं हूं -- बस, मैं स्पंदनोंको अंकित करनेके लिये बहुत अधिक सूक्ष्म यंत्र हू । मुझे हंस तरह पता लगता है कि चीजों कहांसे आती हैं । कोई विचार नहीं होता । स्वप्नका स्पंदन मेरे पास इसी तरह आया था (माताजी नीचेकी ओर, पैरों- तले संकेत करती हैं), वह अवचेतनाके क्षेत्रका था । इसीलिये में जान गयी कि यह अंकित करनेकी बात थी ।
उस दिन जब 'ज' मुझे अपना लेखा सुना रहा था तो यह उदासीन था (माताजी अस्पृष्ट-सा मध्य ऊंचाईकी ओर संकेत करती है), सब समय उदासीन, फिर अचानक 'आनद'की एक चिनगारी आयी; इसीने मुझे उस- का मूल्य बतलाया । और अभी, जब तुम 'क्ष' का यह लेख पढ़ रहे थे तो प्रकाशकी एक छोटी-सी किरण थीं (कंठकी ऊचाईतक संकेत करते हुए), तब मुझे पता चला । एक सुखद प्रकाशकी किरण --'आनंद'का नहीं, परंतु एक सुखद प्रकाश । इसीलिये मैंने जाना कि उसमें कुछ है ।
इसमें अनेक स्तर है, लगभग अनगिनत गुण हैं, है न?
वस्तुओंकी स्थितिको जाननेके लिये मुझे यह उपाय दिया गया है ।
और यह विचारसे बिलकुल बाहर, एकदम बाहरकी चीज है । और बादमें, उदाहरण. के लिये, जब तुमने मुझसे स्वप्नके बारेमें पूछा तो मैंने कहा और एक प्रकारकी निश्चितिके साथ कहा. ''न्यायत, चुकी स्पंदन यहां है (नीचेकी ओर संकेत) यह स्मृति होनी चाहिये ।'' क्योंकि... बोध पूरी तरह निवैयक्तिक है ।
यह अद्भुत रूपसे नाजुक यंत्र है और इसकी ग्रहणशीलताका क्षेत्र (क्रम- का संकेत) लगभग अनंत है ।
अब मेरा लोगोंको जाननेका तरीका भी ऐसा ही है । लेकिन
एक लंबे अरसेसे, उदाहरणको लिये, जब
में किसीका फोटो देखती हू तो बह विचाग्मेसे होकर
बिलकुल नहीं गुजरता, यह निगमन या
अंतर्भाव नहीं होता -- वह किसी भागमें स्पंदन पैदा
करता है । और तब मजेदार बातें
भी होती है । १० उस दिन मुझे किसीका फोटो दिया गया, उत्तर देनेवाला स्पंदन जिस स्थान- को छूता है उससे मैं' ठीक अनुभव कर लेती हू । मुझे मालूम हुआ कि इस आदमीके विचारोंसे काम करनेकी आदत है और इसमें पढ़ानेवालेका आत्म- विश्वास है । मैं जाननेके लिये पूछती हू : ''यह आदमी क्या करता है? '' मुझसे कहा जाता है कि यह व्यापारी है । तब मैंने कहा. ''लेकिन यह व्यापारके लिये नहीं बना, यह व्यापारकी बात बिलकुल नहीं समझता ।'' -तनि मिनटके बाद मुझसे कहा गया. ''ओ, क्षमा कीजिये, यह प्रोफेसर है ! '' (माताजी हंसती है) तो बात ऐसी है ।
निरंतर, निरंतर ऐसा होता है ।
और संसारका मूल्यांकन, संसारके स्पंदन ।
इसीलिये मैंने तुमसे अभी अपना हाथ देनेके लिये कहा था - क्यों? केवल स्पंदन लेनेके लिये । मुझे ऐसा लगा जिसे अंगरेजीमें एक प्रकारकी ''डलनेस'' या उदासी कहते हैं । मैंने अपने-आपसे कहा : ''इसकी तबीयत ठीक नहीं है ।''
और इसमें कोई सोच-विचार नहीं, कुछ भी नहीं, सिर्फ ऐसे (माताजी ऊपरकी ओर आत्म-समर्पणकी मुद्रामें रहती है) ।
हा, तो फिर वह क्या चीज है जो ठीक नहीं है? ( माताजी हंसती है) हा, यह एक प्रकारकी ''उदासी या मंदता'' है ।
हां, मैं 'जडू-द्रथ्य' में बहुत ज्यादा धंसा हुआ हू ।
हा, यही है ।
और यह मजेदार नहीं है ।
नहीं, लेकिन तुम उसमेंसे बाहर नहीं निकल सकते?
में परेशान हू और मेरा शरीर भी मेरी सहायता नहीं करता ।
आह! नहीं, शरीर कभी सहायता नहीं करता, अब मुझे इसका विश्वास है । तुम किसी हदतक अपने शरीरकी सहायता कर सकते हो (बहुत नहीं, फिर मी किसी हदतक), तुम शरीरकी सहायता कर सकते हों । लेकिन शरीर तुम्हारी सहायता नहीं करता । उसके स्पंदन हमेशा धरतीपर होते है ।
११ हां, यह भारी है ।
बिना अपवादके । बिना अपवादके यह नीचे ले जाता है, और सबसे बढ़कर यह : यह ऐसा है जो तुम्हें उदास, मंद बनाता है - वह र्स्पदित नहीं होता ।
यह भारी है ।
लेकिन मैं जिस साधनाका अनुसरण कर रही हू उसमें कुछ रास्ता दिखाने- वाले सूत्र हैं जिनका तुम अनुसरण कर रहे हों । मेरे पास श्रीअरविन्दके कुछ वाक्य है.. । अन्य साधनाओंके लिये मुझे आदत थी. उन्हेंने जो कुछ कहा वह स्पष्ट था, उसने रास्ता दिखाया, ढ्ढनेकी जरूरत नहीं पड़ी; लेकिन यहां उन्होंने ऐसा नहीं किया । उन्होंने केवल समय-समयपर कुछ कहा या टिप्पणियां की हैं और मेरे लिये ये टिप्पणियां उपयोगी है ( और रात मी है जब मैं उनसे मिलती हूं., लेकिन मैं उसपर बहुत अधिक निर्भर नहीं रहना चाहती क्योंकि... तुम इस संपर्कके लिये बहुत व्यग्र हों उठते हों और इससे सब. कुछ बिगड़ जाता है) । कुछ टिप्पणियां हैं जिन्हें मैंने संजो रखा है और वे हां, वे मार्ग-दर्शक सूत्र है, उदाहरणके लिये., ' 'सहन करो.. सहन करो । ''
मान लो, तुम्हें कहीपर दर्द है । सहजवृत्ति ( शरीरकी सहजवृत्ति, कोषाणुओंकी सहजवृत्ति), यही है कि इससे दूर हटो, इसे त्यागो - यह सबसे बुरी चीज है और यह हमेशा बढ़ाती है । इसलिये. पहली चीज जो अपने शरीरको सिखानी चाहिये वह है : स्थिर-शांत रहना -- कोई प्रति- क्रिया न हों । और सबसे बढ़कर, कोई बेचैनी न हो । अस्वीकृतिकी कोई गतितक न हो-संपूर्ण निश्चलता । यह शारीरिक समता हैं ।
संपूर्ण निश्चलता ।
संपूर्ण निश्चलताके बाद आती है आंतरिक अभीप्सा (मैं. हमेशा कोषाणुओंकी अभीप्साकी बात करती हू -- जिसके लिये कोई शब्द नहीं है उसके लिये मैं शब्दोंका प्रयोग करती हू क्योंकि इन्हें छोड़कर अपनी बात करनेका कोई उपाय मी तो नहीं है), समर्पईण, यानी, भागवत इच्छा या भागवत संकल्पको, ( जिसे तुम नहीं जानते), उसे सहज रूपमें और पूर्णतः स्वीकार करना । क्या सर्व संकल्प चाहता है कि चीजों इस दिशामें चालें या उस दिशामें जायें, यानी, कुछ तत्त्वोंके विघटनकी ओर जायें या फिर...?
और इसमें भी फिर अनंत छटाएं है । दो ऊंचाइयोंके बीचके एक मार्गकी
१२ बात है (यह न मूलों, मैं कोषाणुगत उपलब्धियोंकी बात कर रही हू), मेरा मतलब यह है कि तुम्हारे अंदर एक आंतरिक स्थिरता है, गतिकी स्थिरता, जीवनकी स्थिरता । यह तो जानी हुई बात है कि एक गतिसे उच्चतर गतिकी ओर जाते हुए प्राय. हमेशा ही अवतरण होता है और तब चढाई आती है -- यह संक्रमण है । तब तुम्हें जो धक्का लगता है वह तुम्हें नीचेकी ओर धकेल देता है ताकि तुम फिर ऊपर उठ सको? या फिर तुम्हें नीचेकी ओर धक्का देता है ताकि तुम पुरानी गतियोंको छोड़ दो? सत्ताके कोषाणुगत मार्ग है जिन्हें गायब हों जाना चाहिये ताकि अन्य मार्गों- को स्थान मिल सकें? फिर दूसरे उपाय ऐसे है जो ऊपरकी ओर, उच्चतर सामंजस्य और संगठनके साय ऊपर उठनेकी प्रवृत्ति रखते है । यह दूसरी बात है । तुम्हें पहलेसे यह सोचे-विचारे बिना कि क्या होना चाहिये प्रतीक्षा करनी चाहिये और देखना चाहिये । सबसे बढ़कर क्या यही इच्छा नहीं है -- यह इच्छा कि हम आरामसे रहें, यह इच्छा कि हम शांतिसे रहें, यह सब बंद होना चाहिये, एकदम गायब होना चाहिये । तुम्हारे अंदर बिलकुल कोई प्रतिक्रिया न होनी चाहिये, इस तरह (बहेलिया खौले हुए ऊपरकी ओर निश्चल निवेदनका संकेत) । ओर जब व्यक्ति ऐसा हों, यहां व्यक्ति- का अर्थ. है कोषाणु, तो कुछ समय बाद गतिकी श्रेणीका बोध होता है । तुम्हें केवल उसका अनुसरण करना होता है यह जाननेके लिये कि यह ऐसी चीज है जिसे गायब हो जाना चाहिये और जिसके स्थानपर किसी और चीजको आना चाहिये (जो अभी अज्ञात है), या यह कोई ऐसी चीज है जिसका रूपांतर किया जाना हैं ।
और इसी तरह । सारे समय ऐसा ही होता है ।
यह सब तुम्हें यह बतलानेके लिये है कि विचार एकदम निश्चल है । हर चीज प्रत्यक्ष रूपमें प्रकट होती है ' यह स्पंदनका सवाल है । केवल इसी तरीकेसे जाना जा सकता है कि क्या किया जाना चाहिये । अगर चीज मनमेंसे गुजरे, विशेषकर भौतिक विचारणासे जो बिलकुल, एकदम मृत है, तो तुम कुछ नहीं जान सकते । जबतक वह त्रियाशील रहे तबतक तुमसे वह करवाया जाता है जो नहीं करना चाहिये, विशेष रूपसे बुरी प्रति- क्रियाएं करवायी जाती हैं -- ऐसी प्रतिक्रियाएं जो अव्यवस्था और अंधकार- की शक्तियोंका विरोध करनेकी जगह उनकी सहायता करती है । मैं चिंता- की बात नहीं कर रही क्योंकि बहुत लंबे समयसे मेरे शरीरमें कोई चिंता नहीं है -- लंबे अरसेसे, कई वर्षोमे -- चिंता करना जहरका प्याला पीनेके समान है ।
इसीको भौतिक योग कहा जाता है ।
इस सबपर विजय पानी हैं । और यह करनेका एकमात्र उपाय है : हर क्षण सभी कोषाणु (ऊपरकी ओर निश्चल समर्पणकी मुद्रामें) आराधना और अभीप्सामें रहें -- आराधना और अभीप्सा, आराधना... बस और कुछ नहीं । तब; कृउछ समय बाद हर्ष भी आयगा और अंतमें आयगा आनंद- मग्न विश्वास । जब यह विश्वास जम जायगा तो सब कुछ ठीक होगा । लेकिन... यह कहना बहुत आसान है, इसे करना बहुत आंतरिक कठिन है । लेकिन अभी तो मुझे विश्वास है कि यही एकमात्र उपाय है, और कोई उपाय नहीं ।
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